04 October, 2013

सीखना बंद तो जीतना बंद

 अमेरिका में एक बार फिर एक सिख को निशाना बनाया गया। न्यूयॉर्क में कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर प्रभजोत सिंह की करीब 25-30 नौजवानों के एक गुट ने पिटाई कर दी, इस दौरान उन्हें 'ओसामा' और 'आतंकवादी' कहा गया। जाहिर है उनकी पगड़ी और दाढ़ी की वजह से उन्हें निशाना बनाया गया। इस घटना की काफी आलोचना हुई और दोषियों को सजा की मांग की गई। लेकिन अपने चोटों से उबरने के बाद प्रभजोत सिंह ने कहा कि वो अपने हमलावरों को गुरुद्वारा आने
का न्योता देते हैं, ताकि वो यहां आकर हमारे बारे में जान सकें। प्रभजोत सिंह उन्हें सिख धर्म और उसके मूल्यों के बारे में बताना चाहते हैं। प्रभजोत का ये कदम सराहनीय है। उन्होंने हमलावरों को सबक सिखाने के बजाय उन्हें सिख देने की बात कही। वो हमलावरों से बदला नहीं बल्कि उनमें बदलाव चाहते हैं। और इसके लिए उन्हें हकीकत से रूबरू कराने से बेहतर और क्या रास्ता हो सकता है? अब सवाल ये है कि क्या वो हमलावर सीखने को तैयार हैं?

क्या हम सीखने को तैयार हैं?

    जी हां, ये मसला सिर्फ अमेरिका का नहीं है, ये मसला आपसे और हमसे भी जुड़ा है। ये सवाल हमारे देश और समाज के संदर्भ के सबसे ज्यादा मौजूं है कि क्या हम अपनी संकीर्ण सोच से बाहर निकलने को तैयार हैं? दरअसल प्रभजोत के साथ हुई ये घटना एक बानगी भर है, हकीकत ये है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया से 24 घंटे घिरी रहने वाली आज की पीढ़ी एक ऐसी संकीर्ण दुनिया में जी रही है, जिसे दूसरे धर्म, दूसरी संस्कृति या दूसरे समुदायों के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक बड़ा तबका सिर्फ सुनी-सुनाई बातों पर अपने विचारों को ढालता जा रहा है, वो अपने आसपास मौजूद दूसरी 'दुनिया' को जानना-समझना ही नहीं चाहता। उनकी जानकारी सतही और कामचलाऊ है। और देखा जाए तो उनका काम चल भी रहा है, इससे कोई नुकसान भी नहीं है। लेकिन तभी तक जब तक कि उनके अधकचरे ज्ञान को आधार बनाकर कोई उन्हें बरगलाने की कोशिश नहीं कर रहा।

    यहां मैं कुछ घटनाओं का जिक्र करना चाहूंगा जो पिछले कुछ महीनों में मेरे सामने आईं। करीब दो महीने पहले बोधगया में सिलसिलेवार कई धमाके हुएकई दिनों तक ये खबर सुर्खियों में रही। उसी दौरान हमारे दफ्तर में काम करने आई एक इंटर्न से बातचीत के दौरान पता चला कि उसने 'बुद्धं शरणं गच्छामिकभी सुना ही नहीं था। हैरान होना लाजिमी था, इसके बाद मैंने जैन धर्म के बारे में उससे कुछ सवाल किए, कोई जवाब नहीं मिला। फिर धर्म से हटकर कबीर, रहीम, बिहू, पोंगल, अकबर, भगत सिंह और संसद सदस्यों की तादाद के बारे में भी सवाल हो गए। सबके गोलमोल जवाब मिले। कुछ गलत, कुछ सही।

जून 2013 की बात है, केदारनाथ में भूस्खलन के बाद हर रोज तबाही और बर्बादी की हैरतअंगेज तस्वीरें आ रही थीं, उन्हीं में से एक तस्वीर ऋषिकेश की थीजिसमें भगवान शंकर की मूर्ति को सैलाब में बहते देखा जा सकता था। जिस दिन ये तस्वीरें आई, मुझे मेरी एक सहयोगी ने जानकारी दी। मुझसे वो तस्वीर जल्द से जल्द ऑन एयर करने को कहा गया, वो शब्द कुछ इस प्रकार थे - 'ऋषिकेश से पानी में मूर्ति के बह जाने के विजुअल हैं, भगवान शंकर या शिव में से किसी एक की मूर्ति हो सकती है, तुम विजुअल देखकर तय कर लो कि किसकी मूर्ति है'

कुछ दिन पहले एक न्यूज चैनल पर एंकर ने मुहर्रम की हेडलाइन कुछ इस तरह पढ़ी - 'धूमधाम से मनाया गया मुहर्रम का त्योहार'। बाद में मैंने उस चैनल के सहयोगियों से बात की तो पता चला कि किसी प्रोड्यूसर ने ये लाइन लिखी थी, और इस पर काफी बवाल भी मचा।

इन कुछ बानगियों से साफ है कि हम किस सीमा तक सिकुड़ते जा रहे हैं। हमारे पास दूसरे धर्म, संस्कृति और परिवेश के बारे में अधकचरी जानकारी हैऔर उस पर तुर्रा ये कि हम दूसरों पर बनाई गई खुद की राय को सही ठहराने में जुटे हैं। भगवान शंकर और शिव एक ही हैं, और मुहर्रम कोई जश्न मनाने का मौका नहीं है - इस तरह का सामान्य ज्ञान बचपन में ही सिखाया जाता है। लेकिन जिन्हें ये नहीं मालूम, क्या वो अब सीखने को तैयार हैंये सवाल हम सबको खुद से पूछना है कि क्या हमारे सोच के प्याले में इतनी जगह है कि उसमें कुछ और समा सके, या फिर हम अपने अहंकार और अज्ञानता के साथ ही खुश हैं?

हम सीखने को तैयार हैं या नहीं, इस मुद्दे पर एक मित्र से चर्चा के दौरान इन दिनों छोटे पर्दे पर प्रसारित हो रहे सीरियल महाभारत का जिक्र आया। जो लोग 1990 में प्रसारित बी आर चोपड़ा के महाभारत के साक्षी रहे हैं, उनके लिए भी मौजूदा सीरियल में काफी कुछ नया है। महाभारत को आम तौर पर कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध के तौर पर देखा जाता है, लेकिन जिन्होंने महाभारत को जाना-समझा है, वो बता सकते हैं कि ये अपने आप में सभ्यताओं के संघर्ष, संस्कृति के विकास, मानवीय मूल्यों के उतार-चढ़ाव और धर्म-कर्म के बीच द्वंद की गाथा है। लेकिन मेरे मित्र की राय ये थी कि आज की जिस पीढ़ी ने बी आर चोपड़ा के सीरियल को नहीं देखा है, उसे महाभारत के बारे में जानने की क्या जरुरत है। ये पीढ़ी बेहद प्रैक्टिकल है, फोक्स्ड है, उसे पता है कि उसे अपनी ऊर्जा, अपना वक्त कहां लगाना है। इसमें महाभारत के लिए कोई जगह नहीं है। हो सकता है ये सही हो। क्योंकि कंप्यूटर, विज्ञानकॉमर्स या किसी स्पेशलाइज्ड कोर्स की डिग्री देने वाले इम्तिहान में धर्म, संस्कृति और इतिहास से जुड़े सवाल नहीं पूछे जाते। लेकिन क्या ये भी सही नहीं
कि अपने धर्मग्रन्थों, महाकाव्यों और इतिहास से दूर रहने की ये प्रवृत्ति हमें अपनी जड़ों से काट रही है। हम और आप भले इन बुनियादी जानकारियों का महत्व न समझें लेकिन समाज को बांटने वाले हमारी इन्हीं कमियों को हथियार बनाकर हमारा इस्तेमाल कर रहे हैं। हम जानेंगे नहीं तो हमें बरगलाना आसान होगा, हम सीखेंगे नहीं तो हमें बांटना आसान होगा। क्योंकि जहां हमने सीखना बंद किया, वहां मुजफ्फरनगर को दोहराने के लिए हमारे नेता तैयार बैठे हैं।



07 January, 2013

ये हवा...


आज कुछ यूं चली हवा
पलट गए बीती जिंदगी के पन्ने
खुल गई वो पुरानी दास्तां
फिर से गूंजा कहकहा

जब बिन बात के हम देर तक हंसते थे
बेफिक्री में बेवजह रात भर जागते थे
तब एक कमरे में सिमटी थी जिंदगी
पर दुनिया भर की बातें करते थे

आज कुछ यूं चली हवा
मानो लौट आए वो बीते पल
महसूस हुई वो सिहरन
याद आया वो सुकून

जब फर्श पर पैर पसारे
अधखुली आंखों में रात कटती थी
जब घड़ी हमारे इशारों पर चलती थी
याद है, तब सबकुछ पा लेने की जल्दी थी

एक लंबा सफर तय कर चुके हम
एक-दूसरे से शायद दूर हो गए हम
अब जरा पीछे मुड़कर देखते हैं
खुशियों पर पड़े ताले खोलते हैं

चल एक बार फिर चलते हैं पुरानी तारीख में
चल एक बार फिर दिल खोलकर हंसते हैं
यूं ही बह न जाने दें इस हवा को
इसे मुट्ठी में कैद करते हैं
इसे मुट्ठी में कैद करते हैं

(28 फरवरी 2010)