29 June, 2007

बड़े बे-आबरू हुए हम

अपने ही घर के दरवाजे पर
बड़े बे-आबरू हुए हम
यूं ही खड़े रहे दर पर
मगर किसको मेरी फिकर
लोग आते रहे जाते रहे
मेरी ओर देख मुस्कुराते रहे
हर नजर मुझसे कहती रही
अजनबी हो चुके हैं तेरे कदम
बड़े बे-आबरू हुए हम
जहां कभी हम चहकते थे
दिल खोलकर हंसते थे
घंटों बातें होती थीं
बेझिझक मुलाकातें होती थीं
वो जगह इतनी परायी हो गई
इक सांस लेने में निकलता है दम
बड़े बे-आबरू हुए हम
मैंने तो बस एक ख्वाब देखा था
उसे सच करने की हिम्मत जुटाई थी
इसीलिए तो घर से निकला था
आपने दिल में रख लिए
सारे गम
बड़े बे-आबरू हुए हम
अपने ही घर के दरवाजे पर
बड़े बे-आबरू हुए हम

13 June, 2007

तेरी याद आती है

मुंबई क्यों तेरी याद आती है
तेरे पास क्या छूट गया है मेरा
क्यों तेरी याद आती है...
समंदर की लहरों में मुझे
कुछ खास नजर नहीं आया
फिर आज क्यों उन्हें
छूने का दिल करता है
तेरे किनारों पर कभी दिल नहीं लगा
फिर आज क्यों वहीं
शाम बिताने का दिल करता है
वो लहरें मुझे हर रोज बुलाती हैं
मुंबई क्यों तेरी याद आती है...
वो भीड़, वो ट्रेन, वो भागदौड़
सब छोड़ कर तो आया था
अच्छे खाने की सोचकर
दिल्ली चला आया था
फिर क्यों वड़ा पाव के लिए
जीभ ललचाती है
मुंबई क्यों तेरी याद आती है...
जब तक रहा तेरी गोद में
भागने को रहा बेताब
लेकिन कांदिवली की वो गलियां
क्यों आज मन को सुहाती हैं
मुंबई क्यों तेरी याद आती है...
फ्लैट नंबर A-106, अनिता विहार
लोखंडवाला, कांदिवली (ईस्ट)
ऐसा घर शायद कभी न मिले
लेकिन मुझे किसकी तलाश है
उस घर की, उस गली की, उस आबोहवा की
या फिर मुंबई की...
क्योंकि वो घर, गली, आबोहवा
कहीं और नहीं मिलेगी
क्योंकि दुनिया में दूसरी मुंबई
है ही नहीं
इसीलिए मुंबई हर रोज
तेरी याद आती है

07 June, 2007

हारने का एहसास

हारने का एहसास ही बहुत तकलीफ देता है...
रोज उठना, तैयार होना, ऑफिस जाना...
और एक-एक दिन गिनना छुट्टी के लिए...
क्योंकि उस दिन दोस्तों से मुलाकात होगी
रुके हुए काम पूरे हो जाएंगे
और छुट्टी के दिन...
देर तक सोते हैं
बिना वजह टीवी देखते हैं
फिर शाम की राह देखते हैं
और फिर किसी मॉल में जाकर
कोई फिल्म देख लेते हैं
एक और छुट्टी निकल गई
ना दोस्तों से मुलाकात हुई
ना कोई काम हुआ...
शहर बड़ा है... दूरी भी बड़ी है
मिलने के लिए सोचना पड़ता है
दोस्त दूर हो रहे हैं
और यही हारने का एहसास रोज होता है
दिल ढूंढता है फुर्सत के रात-दिन