24 October, 2007

खास...

कभी बैठो मेरे पास
और बताओ
कैसा लगता है
आम से खास बन जाना
कैसे बदलती है लोगों की राय
कैसे बदलता है उनका नजरिया
उनकी आंखों में जो दिखता है फर्क
चेहरे की कैसे बदलती है भाषा
मुझे बताओ
कैसा लगता है
लाखों दिलों की आस बन जाना
कैसा लगता है
आम से खास बन जाना


क्या होता है जब कोई अजनबी
तु्म्हें देख चहक उठता है
क्या होता है जब बढ़ते हैं कई हाथ
तुमसे मिलने को बेताब
तुम्हें छूने को बेताब
उनकी मुस्कान में तुम्हें क्या नजर आता है
क्या तुम्हें भी कुछ खो देने का डर सताता है
मुझे बताओ
कैसा लगता है
हारी बाजी का आखिरी प्रयास बन जाना
कैसा लगता है
आम से खास बन जाना


तू मेरे दोस्त
मेरे जैसा ही तो था
साथ तय की थीं
हमने कई-कई मंजिलें
बुरे वक्त में
हमने बांटी थी रोटी
साथ चिल्लाकर कहते थे
बस छू लेनी है चोटी
तब हम दोनों के ख्वाब ऊंचे थे
कई सपने हमने साथ-साथ बुने थे
लेकिन न जाने क्यों इस दौड़ में
मैं पीछे छूट गया
साथ चले थे मगर
तेरा साथ छूट गया
लेकिन अब भी मैं तेरे लिए
हर वक्त दुआ करता हूं
तू मेरा दोस्त है
सबसे कहता रहता हूं
अब तो दिल में बस एक ही एहसास है
मैं उसके लिए खास हूं
जो सबके लिए खास है
मैं उसके लिए खास हूं
जो सबके लिए खास है

06 July, 2007

आज क्यों है उदास?

सुबह से मैं बस यूं ही उदास था
खुद से पूछा क्या है वजह
खुद में ढूंढा क्या है कमी
क्या कुछ छूटा है अपना
या कोई रूठा है अपना
सबकुछ तो ठीक था
फिर ये कैसा एहसास था
सुबह से मैं बस यूं ही उदास था
आज चेहरे पर क्यों छाई रही खामोशी
खुशी की कोई आहट नहीं है
नहीं! मेरी कोई चाहत नहीं है
ऐसे रहने की आदत नहीं है
फिर क्यों कमजोर मेरा विश्वास था
सुबह से मैं बस यूं ही उदास था

29 June, 2007

बड़े बे-आबरू हुए हम

अपने ही घर के दरवाजे पर
बड़े बे-आबरू हुए हम
यूं ही खड़े रहे दर पर
मगर किसको मेरी फिकर
लोग आते रहे जाते रहे
मेरी ओर देख मुस्कुराते रहे
हर नजर मुझसे कहती रही
अजनबी हो चुके हैं तेरे कदम
बड़े बे-आबरू हुए हम
जहां कभी हम चहकते थे
दिल खोलकर हंसते थे
घंटों बातें होती थीं
बेझिझक मुलाकातें होती थीं
वो जगह इतनी परायी हो गई
इक सांस लेने में निकलता है दम
बड़े बे-आबरू हुए हम
मैंने तो बस एक ख्वाब देखा था
उसे सच करने की हिम्मत जुटाई थी
इसीलिए तो घर से निकला था
आपने दिल में रख लिए
सारे गम
बड़े बे-आबरू हुए हम
अपने ही घर के दरवाजे पर
बड़े बे-आबरू हुए हम

13 June, 2007

तेरी याद आती है

मुंबई क्यों तेरी याद आती है
तेरे पास क्या छूट गया है मेरा
क्यों तेरी याद आती है...
समंदर की लहरों में मुझे
कुछ खास नजर नहीं आया
फिर आज क्यों उन्हें
छूने का दिल करता है
तेरे किनारों पर कभी दिल नहीं लगा
फिर आज क्यों वहीं
शाम बिताने का दिल करता है
वो लहरें मुझे हर रोज बुलाती हैं
मुंबई क्यों तेरी याद आती है...
वो भीड़, वो ट्रेन, वो भागदौड़
सब छोड़ कर तो आया था
अच्छे खाने की सोचकर
दिल्ली चला आया था
फिर क्यों वड़ा पाव के लिए
जीभ ललचाती है
मुंबई क्यों तेरी याद आती है...
जब तक रहा तेरी गोद में
भागने को रहा बेताब
लेकिन कांदिवली की वो गलियां
क्यों आज मन को सुहाती हैं
मुंबई क्यों तेरी याद आती है...
फ्लैट नंबर A-106, अनिता विहार
लोखंडवाला, कांदिवली (ईस्ट)
ऐसा घर शायद कभी न मिले
लेकिन मुझे किसकी तलाश है
उस घर की, उस गली की, उस आबोहवा की
या फिर मुंबई की...
क्योंकि वो घर, गली, आबोहवा
कहीं और नहीं मिलेगी
क्योंकि दुनिया में दूसरी मुंबई
है ही नहीं
इसीलिए मुंबई हर रोज
तेरी याद आती है

07 June, 2007

हारने का एहसास

हारने का एहसास ही बहुत तकलीफ देता है...
रोज उठना, तैयार होना, ऑफिस जाना...
और एक-एक दिन गिनना छुट्टी के लिए...
क्योंकि उस दिन दोस्तों से मुलाकात होगी
रुके हुए काम पूरे हो जाएंगे
और छुट्टी के दिन...
देर तक सोते हैं
बिना वजह टीवी देखते हैं
फिर शाम की राह देखते हैं
और फिर किसी मॉल में जाकर
कोई फिल्म देख लेते हैं
एक और छुट्टी निकल गई
ना दोस्तों से मुलाकात हुई
ना कोई काम हुआ...
शहर बड़ा है... दूरी भी बड़ी है
मिलने के लिए सोचना पड़ता है
दोस्त दूर हो रहे हैं
और यही हारने का एहसास रोज होता है
दिल ढूंढता है फुर्सत के रात-दिन