29 June, 2007

बड़े बे-आबरू हुए हम

अपने ही घर के दरवाजे पर
बड़े बे-आबरू हुए हम
यूं ही खड़े रहे दर पर
मगर किसको मेरी फिकर
लोग आते रहे जाते रहे
मेरी ओर देख मुस्कुराते रहे
हर नजर मुझसे कहती रही
अजनबी हो चुके हैं तेरे कदम
बड़े बे-आबरू हुए हम
जहां कभी हम चहकते थे
दिल खोलकर हंसते थे
घंटों बातें होती थीं
बेझिझक मुलाकातें होती थीं
वो जगह इतनी परायी हो गई
इक सांस लेने में निकलता है दम
बड़े बे-आबरू हुए हम
मैंने तो बस एक ख्वाब देखा था
उसे सच करने की हिम्मत जुटाई थी
इसीलिए तो घर से निकला था
आपने दिल में रख लिए
सारे गम
बड़े बे-आबरू हुए हम
अपने ही घर के दरवाजे पर
बड़े बे-आबरू हुए हम

3 comments:

Anil Dubey said...

यह एक ऐसी दास्तां है जो हर उस आदमी की है जो अपनी जडों को छोडकर रोटी की जुगाड में अजनबी शहर में जाता है.शहर कितना उसे अपनाता है यह तो बाद की बात है लेकिन आप अपने घर में अजनबी हो जाते हैं.आपकी हालत कुछ बनने और बने बिना बिगडने और उससे जुडे हुए तमाम संघर्षों की ही कहानी कहती है.फिर आप फ़ुर्सत के चंद लम्हों में ये सोचने लगते हैं " बडे बे-आबरू हुए हम".

Amit Gupta said...

शुक्रिया दोस्त... तुमने कविता पढ़ी और उसकी पीछे छिपे दर्द को महसूस किया। हम सभी इसी व्यथा से गुजर रहे हैं। जिंदगी की भागदौड़ में हम बहुत दूर निकल आए हैं। पीछे मुड़कर देखते हैं तो अपने लोग अब धुंधले नजर आते हैं। हाथ बढ़ाकर छूने की कोशिश तो करते हैं लेकिन सिर्फ मिट्टी ही हाथ आती है। लेकिन ये दौड़ है कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही...

kaushal lakhotia said...

well, your poetry seems to stem from your inner self. The pain and anguish in your words really touches one's heart. keep it up.